काकोरी के शहीद क्यो भुला दिये गए, अशफाक उल्ला खान, रामप्रसाद बिस्मिल, रोशन सिंह।

19 दिसंबर 2020: मुहम्मद आदिल- शहीदों की धरती हिदुस्तान में जहां एक तरफ फर्जी और ग़द्दारों के देशभक्त बनाकर उनका झूठा महामंडन कर नया इतिहास लिखा जा रहा है। वही दूसरी और इस देश पर अपनी आन वान शान और जान कुर्बान करने वाले अमर बलिदानी वीर सपूतों को भुलाया जा रहा है।

भारत के स्वाधीनता आंदोलन में काकोरी कांड की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है. लेकिन इसके बारे में बहुत ज्यादा जिक्र सुनने को नहीं मिलता. इसकी वजह यह है कि इतिहासकारों ने काकोरी कांड को बहुत ज्यादा अहमियत नहीं दी. लेकिन यह कहना गलत नहीं होगा कि काकोरी कांड ही वह घटना थी जिसके बाद देश में क्रांतिकारियों के प्रति लोगों का नजरिया बदलने लगा था और वे पहले से ज्यादा लोकप्रिय होने लगे थे.

भारत के स्वतंत्रता आंदोलन पर शोध करने वाली डॉ. रश्मि कुमारी लिखती हैं, ‘1857 की क्रांति के बाद उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में चापेकर बंधुओं द्वारा आर्यस्ट व रैंड की हत्या के साथ सैन्यवादी राष्ट्रवाद का जो दौर प्रारंभ हुआ, वह भारत के राष्ट्रीय फलक पर महात्मा गांधी के आगमन तक निर्विरोध जारी रहा. लेकिन फरवरी 1922 में चौरा-चौरी कांड के बाद जब गांधी जी ने असहयोग आंदोलन को वापस ले लिया, तब भारत के युवा वर्ग में जो निराशा उत्पन्न हुई उसका निराकरण काकोरी कांड ने ही किया था’.

19 दिसम्बर ,1927 को हिंदुस्तान की आज़ादी की लड़ाई में प्रसिद्ध “काकोरी कांड” के महान अमर शहीद- राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ तथा ठाकुर रोशन सिंह ने फांसी के फंदे को चूमकर माँ भारती के क़दमों में अपना जीवन का बलिदान दिया था…

अंग्रेजी हुकूमत का सिर चकरा देने वाली इस घटना को इन महान क्रांतिकारियों ने अपनी जान की परवाह किये बगैर अंजाम दिया..क्रान्तिकारियों द्वारा चलाए जा रहे आजादी के आन्दोलन को गति देने के लिये धन की तत्काल व्यवस्था की जरूरत के मद्देनजर उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर में हुई बैठक के दौरान राम प्रसाद बिस्मिल ने अंग्रेजी सरकार का खजाना लूटने की योजना बनायी थी..

इस योजनानुसार दल के ही एक प्रमुख सदस्य राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी ने 9 अगस्त 1925 को लखनऊ जिले के काकोरी रेलवे स्टेशन से छूटी “आठ डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेन्जर ट्रेन” को चेन खींच कर रोका और क्रान्तिकारी पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में अशफाक उल्ला खाँ, पण्डित चन्द्रशेखर आज़ाद व 6 अन्य सहयोगियों की मदद से समूची ट्रेन पर धावा बोलते हुए सरकारी खजाना लूट लिया।

काकोरी कांड का ऐतिहासिक मुकदमा लगभग 10 महीने तक लखनऊ की अदालत रिंग थियेटर में चला (आजकल इस भवन में लखनऊ का प्रधान डाकघर है.). इस पर सरकार का 10 लाख रुपये खर्च हुआ. छह अप्रैल 1927 को इस मुकदमे का फैसला हुआ जिसमें जज हेमिल्टन ने धारा 121अ, 120ब, और 396 के तहत क्रांतिकारियों को सजाएं सुनाईं. इस मुकदमे में रामप्रसाद ‘बिस्मिल’, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी, रोशन सिंह और अशफाक उल्ला खां को फांसी की सजा सुनाई गई. शचीन्द्रनाथ सान्याल को कालेपानी और मन्मथनाथ गुप्त को 14 साल की सजा हुई. योगेशचंद्र चटर्जी, मुकंदीलाल जी, गोविन्द चरणकर, राजकुमार सिंह, रामकृष्ण खत्री को 10-10 साल की सजा हुई. विष्णुशरण दुब्लिश और सुरेशचंद्र भट्टाचार्य को सात और भूपेन्द्रनाथ, रामदुलारे त्रिवेदी और प्रेमकिशन खन्ना को पांच-पांच साल की सजा हुई.

 पं. रामप्रसाद बिस्मिल को गोरखपुर जेल में फांसी दी गई. उन्होंने अपनी माता को एक पत्र लिखकर देशवासियों के नाम संदेश भेजा और फांसी के तख्ते की ओर जाते हुए जोर से ‘भारत माता’ और ‘वंदेमातम्’ की जयकार करते रहे. चलते समय उन्होंने कहा

मालिक तेरी रजा रहे और तू ही रहे,
बाकी न मैं रहूं, न मेरी आरजू रहे.
जब तक कि तन में जान, रगों में लहू रहे
तेरा हो जिक्र या, तेरी ही जुस्तजू रहे.

फांसी के दरवाजे पर पहुंचकर बिस्मिल ने कहा, ‘मैं ब्रिटिश साम्राज्य का विनाश चाहता हूं.’ और फिर फांसी के तख्ते पर खड़े होकर प्रार्थना और मंत्र का जाप करके वे फंदे पर झूल गए. गोरखपुर की जनता ने उनके शव को लेकर आदर के साथ शहर में घुमाया. उनकी अर्थी पर इत्र और फूल बरसाए.

अशफाक उल्ला खां काकोरी कांड के चौथे शहीद थे. उन्हें फैजाबाद में फांसी दी गई. वे बहुत खुशी के साथ कुरान शरीफ का बस्ता कंधे पर लटकाए हाजियों की भांति ‘लवेक’ कहते और कलाम पढ़ते फांसी के तख्ते पर गए. तख्ते का उन्होंने चुंबन किया और उपस्थित जनता से कहा, ‘मेरे हाथ इंसानी खून से कभी नहीं रंगे, मेरे ऊपर जो इल्जाम लगाया गया, वह गलत है. खुदा के यहां मेरा इंसाफ होगा.’ और फंदे पर झूल गए. उनका अंतिम गीत था –

तंग आकर हम भी उनके जुल्म से बेदाद से
चल दिए सुए अदम जिंदाने फैजाबाद से

19 दिसंबर को उनका पार्थिव शरीर मालगाड़ी से शाहजहांपुर ले जाते समय गाड़ी लखनऊ बालामऊ स्टेशन पर रुकी. जहां पर एक साहब सूट-बूट में गाड़ी के अंदर आए और कहा, ‘हम शहीद-ए-आजम को देखना चाहते हैं.’ उन्होंने पार्थिव शरीर के दर्शन किए और कहा, ‘कफन बंद कर दो, मैं अभी आता हूं.’ यह साहब कोई और नहीं चन्द्रशेखर आजाद थे. काकोरी कांड में अंग्रेजों ने चन्द्रशेखर आजाद को भी बहुत ढूंढ़ा. वे हुलिया बदल-बदल कर बहुत समय तक अंग्रेजों को धोखा देने में सफल होते रहे. अंततः 27 फरवरी 1931 को इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में अंग्रेजों का सामना करते हुए वे अपनी ही गोली से शहीद हो गए.

पंडित बिस्मिल और अशफाक उल्ला खाँ साहब एक दुसरे के बहुत ही गहरे मित्र थे….पंडित बिस्मिल अंग्रेजी भाषा के बड़े अच्छे जानकार और एक महान कवि भी थे..उन्होंने कुछ जग-प्रसिद्ध कवितायेँ लिखी जिन्होंने आगे चलकर बाकि क्रांतिकारियों में क्रांति की ज्वाला का संचार किया और हिन्दुस्तान के हर क्रन्तिकारी की जुबान पर ये कवितायेँ मानो रच-बस सी गयी…

पंडित बिस्मिल जी द्वारा लिखी गयी “मेरा रंग दे बसंती चोला” और “सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है” जैसी कल-जयी रचनायें आज भी इस मुल्क में देशभक्ति का प्रतीक हैं और आज की तारीख में भी उनकी इन पंक्तियों बिना किसी भी शहीद को दी जाने वाली श्रधांजलि अधूरी ही रहती है…..

अशफाक साहब भी एक बहुत बेहतरीन कवि थे और हिन्दू-मुस्लिम एकता के बहुत बड़े पक्षधरों में एक थे…..ठाकुर रोशन सिंह एक आकर्षक और रोबीले व्यक्तित्व के क्रन्तिकारी थे और निशानेबाजी में उनके सामने अच्छे-अच्छे पानी भरते थे..

पर देश के लिए कुर्बानियां देने वाले इन शहीदों को क्या वो सम्मान , वो इज्ज़त ये मुल्क दे पाया है जिसके वो हक़दार थे ? इस मुल्क में कितनी सडकें, कितनी इमारतें, कितनी योजनायें, कितने वजीफे, कितने पुरूस्कार, कितने सम्मान कितने बाज़ार, कितने कॉलेज और यूनिवर्सिटी इनके नाम पर हैं ?

क्या इस मुल्क की अब तक की सारी सरकारें और आवाम आर्थिक , भावनात्मक और मानसिक स्तर पर इतने गरीब, इतने निर्धन रहे हैं कि इन शहीदों के लिए कोई ढंग का स्मारक तक ना बनवा सके ? आज भी उत्तर प्रदेश में इन शहीदों के जन्म-स्थल और समाधियां जीर्ण अवस्था में अपनी पहचान और सम्मान के लिए राह तक रही हैं…

देश को आज़ाद करवाने वाले कुछ स्वतंत्रता-सेनानियों की पीढियां तो ब्याज समेत उनके बलिदान को वसूल चुकी हैं और कुछ आज भी वसूल रहीं है और वहीँ दूसरी तरह कुछ क्रान्तिकारियो और बलिदानियो की पीढियां आज गुमनामी के गर्त में दो जून रोटी और छत पाने की जद्दोजहद में इसी मुल्क के किसी अँधेरे कोने में सिसक रहीं हैं..

क्या ऐसा पूरी दुनिया के किसी और मुल्क में हो सकता है कि गिनती के कुछ लोगों को महान बनाकर करोड़ों की कीमत की कई एकड़ जमीन पर उनकी समाधिओं को बना दिया जाये और देश के लिए अपनी जान तक कुर्बान कर देने वालों के लिए दो गज़ जमीन का टुकड़ा भी देना इस मुल्क की सियासत को भारी पड़े ?

क्या ऐसा पूरी दुनिया के किसी और मुल्क में हो सकता है कि गिनती के कुछ लोगों को महान बनाकर उनकी जन्मतिथि और पुण्यतिथि पर अखबार के पन्ने और टीवी की स्क्रीन रंगी पड़ी हो और इस देश के लिए फांसी के फंदे को “वन्दे मातरम” कहकर चूमने वालों का जिक्र तक करने की फुरसत जिस आवाम और सरकार को ना हो ?

हमें कुछ ख़ास आदरणीय देशभक्तों को महान कहने की सरकारी कयावद से ज्यादा दिक्कत नहीं..दिक्कत है तो इस बात से कि कब इस मुल्क में उन बाकि बिसरा दिए गए शहीदों को उनका असली सम्मान, असली इज्ज़त और वो मुकाम मिलेगा जिसके वो हकदार उन ख़ास लोगों से तो ज्यादा हक़दार नहीं तो फिर कम भी नहीं थे ….

कब निकलेंगे ये गुमनाम शहीद उन “महान ” लोगों की परछाई से ?? उन लोगों की परछाई से जो इतने महान शायद थे नहीं पर जिन्हें इन सरकारों ने इतने महान बना दिया था……और जिनकी “महानता” के नाम पर आज भी इनकी पीढियां इस मुल्क के गरीब और दबे-कुचले लोगों से कीमत मांग रहीं हैं….

और अंत में — ये बात दीगर है कि इन महान पर गुमनाम शहीदों की शहादत को यूँ अनदेखा करना इस मुल्क के भविष्य के लिए ठीक नहीं है क्योंकि जो मुल्क अपने वीरों और शहीदों को अनदेखा कर उन्हें भुलाना शुरू कर देते हैं, तो भविष्य में उस मुल्क की माओं की कोख से वीर और शहीद जन्म लेना बंद हो जाते हैं..

काकोरी काण्ड के शहीदों का ये देश हमेशा कर्जदार रहेगा !!


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